लम्बा है एनआरसी पर बहस का इतिहास

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चर्चित मुद्दा

…एनआरसी यानि राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर। देश में असम ही एक मात्र ऐसा राज्य है। जहां एनआरसी बनाया जा रहा है या लागूं किया जा रहा है। सवाल इस पर नहीं है कि इसे क्यों लागूं किया जा रहा है। सवाल ये है कि इसको लेकर विवाद क्या है? अमस के नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का अंतिम यानि दूसरा मसौदा जारी कर दिया गया है। इसमें शामिल होने के लिए असम के 3.29 करोड़ लोगों ने आवेदन किए थे। जिनमें से 2.89 करोड़ लोगों के नाम एनआरसी में शामिल गए हैं। इस हिसाब से एनआरसी में असम में रह रहे 40 से 41 लाख लोगों के नाम शामिल नहीं किए गए। इन्हीं लोगों को घुसपैठिया और बांग्लादेशी कहा जा रहा है। जबकि अभी खुद गृह मंत्री राजनाथ सिंह कह रहे हैं कि यह अभी अंतिम निर्णय नहीं है। बावजूद इसके भाजपा-कांग्रेस और दूसरे दलों के बीच जंग छिड़ी हुई है। बहस इस बात नहीं हो रही है कि मामले का समाधान क्या है। अगर कोई वास्तव में सही है और उसका नाम छूट रहा है, तो उसके लिए क्या प्रावधान है। बहस राष्ट्रवाद और देशद्रोही पर आकर ठिठक गई है। ये वही बहस है, जो देश में पिछले कुछ सालों में सबसे ज्यादा हो रही है। राजनीति दलों से लेकर चैनलों और अखबारों की टीआरपी और पाठक संख्या में इसी से चल रही है। आखिर कब तक…?=

नेता चाहे किसी भी दल का हो। किसीको भी देश की सुरक्षा से खिलवाड़ करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। चाहे भाजपा हो, कांग्रेस हो, टीएमसी हो या फिर कोई दूसरा दल। देश की किसी एक दल की जागीर नहीं। सवा सौ हम भारतियों का है। देश और देश की सरकारें हमेसा जनता से बनती हैं। ताकतवर आम लोग हैं। ये बात अलग है कि लोग देशद्रोही और राष्ट्रवादी की बहस से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। सरकारें और राजनीति दल यही चाहते भी हैं। जनता आपस में लड़ती रहेगी तो असल मुद्दों पर किसी का ध्यान नहीं जाएगा।

अब असल मुद्द पर आते हैं। एनआरसी को आसान भाषा में कहें तो एनआरसी वो प्रक्रिया है जिससे देश में गैर-कानूनी तौर पर रह रहे विदेशी लोगों का पता लगाया जाता है। आजादी के असमें 1951 में पहली बार नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन बनाया गया था। तब से इस पर आगे कोई कार्रवाई नहीं हुई। 1905 में अंग्रेजों ने बंगाल विभाजन किया था। उसके बाद पूर्वी बंगाल के साथ असम को मिलाकर एक प्रात बनाया गया था। असम विद्रोह के बाद 1950 असम अलग राज्य बन गया था। पहली बार 1951 की जनगणना के बाद नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन तैयार हुआ था। इसमें तत्कालीन समय में असम में रहने वाले लोगों को शामिल किया गया था। असम में बाहरी लोगों को विरोध तब से ही होता रहा है। असल में अंग्रेजों के काल में बिहार और दूसरे राज्यों के लोग वहां काम करने के लिए जाया करते थे, जिनको विरोध झेलना पड़ता था। असम में बाहरी लोगों के आने के मुद्दे पर आज से नहीं, तब से ही राजनीति हो रही है।

आजादी के बाद देश के लोगों के अलावा तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी लोगों को असम में आना शुरू हो गया। बांग्लादेशियों के भारत में अवैध रूप से आने का विरोध भी होता रहा, लेकिन किसीने इस मसले को मजबूती से नहीं उठाया। बड़ी संख्या में बांग्लादेशी असम में पंहुच गए। 1971 में पूर्वी पाकिस्तान पर पाकिस्तानी सेना ने हमला कर दिया था, तब लाखों लोगों ने भारत में शरण ली थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शरणार्थियों को वापस नहीं जाने का एलान कर दिया था। उन्होंने यह भी कहा था कि वो यहां रहेंगे, लेकिन हम उन्हें अपनी आबादी में शामिल नहीं करेंगे।

में बांग्लादेश के अलग देश बनने के बाद वहां हिंसा में भी कमी आई। यह वह दौर था, जब बड़ी संख्या में बांग्लादेशी वापस अपने देश लौट गए, लेकिन काफी संख्या में लोग भारत में ही रुक गए थे। असम से जितनी संख्या में बांग्लादेशी जा रहे थे। उतनी ही संख्या में यहां आते भी रे। 1978 में अमस में बांग्लादेशी लोगों के आने का विरोध भी शुरू हो गया था। तब इस आंदोलन को युवाओं ने इस आंदोलन को लीड किया था। इसी मूवमेंट से ऑल असम स्टूडेंट यूनियन और ऑल असम गण संग्राम परिषद का जन्म भी हुआ था। इसी साल क्षेत्र के सांसद का निधन हो गया था। इसके बाद हुए उपचुनाव में वोटिंग के दौरान बड़ी संख्या में वोटर बढ़ गए।

1983 में अमस में आदंालन कर रहे लोगों और केंद्र सरकार के बीच बैठक हुई। इस बैठक में यह तय करने का प्रयास किया गया कि, लेकिन इसमें कुछ तय नहीं हो पाया। मुद्दा यह था कि कौन विदेशी हैं और कौन देश के निवासी हैं। तब से ही एनआरसी को लागूं करने की मांग चल रही है। आज भी हम 1983 वाली स्थिति में खड़े हैं। जहां यह तय करने को लेकर बहस चल रही है कि कौन सही में भारतीय नागरिक है और कौन विदेशी या घुसपैठिया है। आज यह तय करना होगा कि घुसपैठिया कौन है। केवल असम में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में एनआसी को लागू करने की जरूरत है।
..प्रदीप रावत (रवांल्टा)

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