एक्शन लीजिए सीएम साबह, सख्त लहजे से कुछ नहीं होता

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प्रदीप रावत (रवांल्टा)
प्रदेश के जंगल पिछले एक माह से जल रहे हैं। पिछले 10-15 दिनों में आग ने कुछ ज्यादा ही विक्राल रूप ले लिया है, लेकिन एसी की ठंडक ने मुख्यमंत्री और वन मंत्री को इतना ठंडा कर दिया कि उनको कुछ महसूस ही नहीं हो रहा था। हालांकि अब सीएम साहब जागे हैं, लेकिन केवल अधिकारियों को सख्त लहजे में ही धमका रहे हैं। सीएम साहब कह रहे हैं कि डीएम से पूछा जाएगा कि आग कहां और क्यों लगी…? बात कुछ जमी नहीं। सबकुछ डीएम ने ही करना है, तो डीएफओ, बंदर और हिरनों को अपने पिंजरों में कैद कर रखने वाले अधिकारी किस काम के हैं। क्या सरकार इनको केवल कुर्सी तोड़ने के लिए ही वेतन दे रही है…? सरकार जितनी सख्ती आपके लहजे में है। एक्शन भी उतना ही तेज हो जाए, तो जंगलों की आग बुझ जाएगी। वरना, ऐसे सख्त लहजे में तो आप पहले भी कहते आए हैं। उस पर अब तक कुछ एक्शन हुआ नहीं। इस बार देखते हैं। कुछ होता भी है…? या यूं ही, सब हवा-हवाई।

संरक्षित प्रजाति के कई पौधे, वनस्पतियां और वन्य जीव अब तक आग में जलकर राख हो चुके हैं। इनको बचाने के लिए करोड़ों खर्च किया जाता है। मोटी-मोटी फाइलें बनती हैं, लेकिन धरातल पर कुछ नजर नहीं आता। वन विभाग बस आम लोगों को ही वन कानून की धमकियां दिखाता है। आग से हुए नुकसान के लिए कौन जिम्मेदार है…? क्या जिम्मेदार मंत्री और अधिकारियों के खिलाफ जंगलों को आग से नहीं बचा पाने, वन्य जीवों की मौत, संरक्षित प्रजाति के पेड़ों, पौधों और वनस्पतियों के नुकसान, लोगों की परेशानी के लिए वन अधिनियम के तहत आपराधिक मामले दर्ज नहीं किए जाने चाहिए…? क्या फायर सीजन से पहले आग पर काबू पाने के लिए खर्च किए गए बजट की वसूली अधिकारियों से नहीं होनी चाहिए…? क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि करोड़ों खर्च कर कितना लाभ हुआ, कितने जंगल बचे…? और हां राज्य बनने के बाद जितना भी पौध रोपण हुआ। उनमें से कितने सांस ले पा रहें…? कुछ बचे भी हैं या केवल सफेद काजगों में ही हरियाली हो रही है…?

हर साल अग्नि सुरक्षा के नाम पर बजट आता है। अग्नि सुरक्षा उपकरण खरीदने के प्रस्ताव बनते हैं, लेकिन वो प्रस्ताव कहां गायब हो जाते हैं, पता ही नहीं चल पाता। कुछ उपकरण खरीदे भी जाते हैं, तो वो आग लगने से पहले ही जंग खाकर खराब हो जाते हैं। जब उनकी जरूरत होती है, तब उपकरण किसी काम नहीं आते। फिर से बैठक होती है। अग्नि सुरक्षा उपकरण खरीदने पर मुहर लगती है और फिर से वह प्रस्ताव कहीं गुमशुदा हो जाता है। जिसकी गुमशुदगी की रिर्पोट भी नहीं लिखी जाती।

सरकारें अब जागने का ऐन मौका ढूंडती हैं। जब लगता है कि कुछ होने वाला है। बैठक बुला ली जाती है। सफेद कागज पर काली सियाही से कुछ निर्देश लिखे जाते हैं और फिर लाल और हरी स्याही भरी महंगी कलमों से उन पर हस्ताक्षर कर दिए जाते हैं। अक्सर होता क्या ह..? जब किसी की जान चली जाती है। फिर सरकार मुआवजे का एलान करती है। स्वाल यह है कि क्या लोगों की मौत की कीमत सरकार का मामूली मुआवजा है…? जागने की जरूरत है। हमें भी और आपको भी। वरना सोते-सोते ही, चैन की नींद सो जाएंगे।

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