पलायन के दर्द का ढिंढोरा लेकिन इस दर्द की न कोई दवा, ना ही इलाज

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ये दौलत भी ले लो, यह शौहरत भी ले लो,

मगर मुझ को लौटा दो वो मेरा गांव,

वो बचपन, वो हंसी, और वो रौनक………..

आज हर उत्तराखंडी चाहे जहां भी हो, लेकिन उसके जहन में आज भी एक ही पीड़ा होगी और उस पीड़ा में गौं, गुठयार, ख्याला, म्याला, बोडी, च्ची का जिक्र जरूर होगा। लेकिन उत्तराखंड राज्य में पलायन के आगे सब बेबस हैं। ना उच्च पढ़ाई, न स्वास्थ्य सुविधाएं, न स्कूल, न शिक्षक, न सड़कें, न पानी, और ना ही बिजली। भला इन सब के अभाव में इंसान रहे तो कैंसे। तभी तो आज उत्तराखंड राज्य त्रास्दी से ज्यादा पलायन की पीड़ा से जूझ रहा है। जिसका कहीं पर भी अंत होता नहीं दिखाई दे रहा है।

उत्तराखंड में लगातार पलायन अपने पैर पसारते जा रहा है। हालात यह हैं कि राज्य गठन के बाद से लेकर अब तक 2 लाख से भी अधिक घरों में ताला लगा हुआ है।

हमारे उत्तराखंड की ग्रामीण जनसंख्या का प्रतिशन निरंतर घटता ही जा रहा है। जिससे शहरों की तरफ लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा है। एक तरफ जहां गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं, वहीं शहरों के हाल मच्छी बाजार की तरह होने लगें हैं। ग्रामीण क्षेत्रों से लोग जहां अपनी बुनियादी सुविधाओं के लिए शहरों में रच-बस रहे हैं उससे न केवल लोगों में बदलाव आ रहा है, बल्कि उसके कारण हमारी आवो-हवा में भी बदलाव आने लगा है।

उत्तराखंड ही नहीं भारतवर्ष झेल रहा पलायन का दंश

लेकिन पलायन की पीड़ा केवल उत्तराखंड ही नहीं बल्कि पूरा भारतवर्ष झेल रहा है। जनगणना 2011 के अनुसार हमारे देश की कुल जनसंख्या 121.02 करोड़ आंकलित की गई है। जिसमें 68.84 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में निवास करती है और 31.16 प्रतिशत जनसंख्या शहरों में निवास करती है। एक आर्टिकल के अनुसार स्वतंत्र भारत की प्रथम जनगणना 1951 में ग्रामीण एवं शहरी आबादी का अनुपात 83 प्रतिशत एवं 17 प्रतिशत था। 50 वर्ष बाद 2001 की जनगणना में ग्रामीण एवं शहरी जनसंख्या का प्रतिशत 74 एवं 26 प्रतिशत हो गया। अब आप आंकडों के हिसाब से आंकलन लगा सकते हैं कि भारतीय ग्रामीणों से कितनी तादाद में शहरों की तरफ पलायन हो रहा है।

उत्तराखंड के 2 लाख 80 हजार 615 घरों पर लग चुका है ताला

उत्तराखंड राज्य में 16,793 गांव हैं। लेकिन अब इन गांवों में वो रौनक नहीं रह गई जो पहले हुआ करती थी। ना अब गांवों में वो बच्चों की खिलखिलाहट सुनाई देती है और ना ही वो महिलाओं की छ्वीं। गांवों में अब सुनाई देता है तो केवल सन्नाटा। उत्तराखंड राज्य के अधिकतर जिलों की यही कहानी है। अर्थ एंव सांख्यिकी मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 2011 में 2,80,615 घरों में ताले लग चुके हैं। जिनमें से पौड़ी में 38 हजार से ज्यादा, चमोली में 20,465, टिहरी में 37,450, रूद्रप्रयाग में 11,609, पिथौरागढ़ में 25,904, अल्मोड़ा में 38,568, और यहां तक कि हालात यह हैं कि शहरी क्षेत्र से ही पलायन हो राह है। जिसमें सबसे पहले देहरादून का नाम आता है। आश्चर्य की बात है कि देहरादून से सटे गांवों में भी बड़ी मात्रा में पलायन हो रहा है। जिससे अभी तक दून क्षेत्र के ग्रामीण एरिया से 46,489 घरों पर ताले लगे हुए हैं।

बचे-कुचे पहाड़ की साख बचाई है महिलाओं ने……

उत्तराखंड के गांवों से तो सभी वाकिफ हैं। पिछले 16 सालों से पलायन ने अपनी जड़ें इतनी जमां लीं हैं कि वो जड़ें अब घरों को उजाड़ खा बैठे हैं। यहां तक कि पहाड़ के 3हजार गांव शून्य हो चुके हैं। और इसका एक उदाहरण है रूद्रप्रयाग जिले का बरर्सू गांव। इस गांव को पलायन ने लील लिया है। यहां एक इंसान तो दूर एक जानवर तक भी दूर-दूर तक नजर नहीं आता।

पहाड़ को बनाने और पहाड़ की रीढ़ माने जाने वाली महिलाओं के कारण ही जहां उत्तराखंड राज्य बना। वहीं उत्तराखंड की ही महिलाओं ने अपने बचे-कुचे पहाड़ को बचा रखा है। भले ही यह सुनने में आपको अटपटा लगा हो लेकिन इसमें बड़ी सच्चाई है।

पौड़ी जिले के पोस्टऑफिस पीपलपानी और उसके आस-पास गांवों की यदि बात की जाए तो यहां यह कहावत सच साबित होती है कि महिलाएं ही पहाड़ की रीढ़ हैं और इनके बदौलत ही गांवों में रौनक है। इस पोस्ट ऑफिस के अंतर्गत 25 से ज्यादा गांव आते हैं। लेकिन पलायन के दंश से यह क्षेत्र भी अनछुआ नहीं रहा। यहां के युवक और पुरूष नौकरी करने के कारण गांव से दूर हो गए हैं। तो वहीं कुछ ऐसे भी पुरूष हैं जो केवल महिलाओं के ही कारण अपने जीवन को यापन कर पा रहे हैं । आपको बता दें कि गांवों की महिलाएं मेहन्नत, मजदूरी और मनरेगा के तहत काम कर एक तरफ अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण कर रही हैं तो वहीं पुरूष समाज न तो महिलाओं को इस काम में हाथ बटाता है, बल्कि महिलाओं की जमा-पूंजीं और मेहन्नत पर ही निर्भर रहता है। और तो और देखा जाए तो शराब की लत ने गांवों के गांव और परिवार के परिवार बर्बाद कर दिए हैं। जिससे गांव के पुरूष केवल दिन भर आराम और शाम होते ही ठेकों पर नजर आते हैं। लेकिन इन सब के बीच पिस्ती है तो केवल एक नारी। पहाड़ की नारी।

आज बच्चा-बच्चा भी जानता है कि उत्तराखंड के क्या हालात हैं रोजगार तो छोड़िए यहां तो मूल-भूत सुविधाएं भी नहीं हैं। यह केवल हम जुबानी बात नहीं कह रहे हैं बल्कि आप उपर दिए गए आंकड़ों से अंदाजा लगा सकते हैं कि असल तौर पर उत्तराखंड  व उत्तराखंडियों का असल दर्द क्या है।

हैरत की बात तो यह है कि जिस विकास के लिए 16 सालों में अपनी उम्र के आधे से ज्यादा मुख्यमंत्री राज्य देख चुका हो और मंत्री आए दिन पलायन का मुद्दा लेके बैठे हों लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि दर्द पता होने के बावजूद भी विकास के इन मंत्रियों के पास कोई इलाज नहीं हैं। जिस कारण इन 16 सालों से पलायन की स्थिति न केवल बढ़ी है बल्कि स्थिति अब भयावह हो चुकी है।

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