सरंक्षण के अभाव में खोती जा रहीं एतिहासिक धरोहरें..

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रुद्रप्रयाग: आजादी से पहले जुल्म की दास्तानों की कई यादें आज भी रुद्रप्रयाग जनपद में मौजूद हैं, चाहे ककोडाखाल की कुली बेगार प्रथा हो या फिर तत्कालीन देवलगढ परगना की मशहूर डुंग्रा गांव स्थित जेल। 11 कमरों की इस जेल के अब खण्डहर ही शेष बचे हैं, मगर इन खण्डहरों को देखकर साफ कहा जा सकता है कि किसी जमाने में जुल्म की इस हवेली में ना जाने कितने गुनाहों का फैसला हुआ होगा और ना जाने कितने गुनाहगारों को सजा के तौर पर गम्भीर यातनाएं दी गयी होंगी। आज इस जुल्म की हवेली की दास्तान को पहली बार हम दिखायेंगे कि आखिर क्या कुछ था इस अंगे्रजों की जेल के रुप में प्रसिद्व इस अपने तरीके के अनोखे कैदखाने में-
रुद्रप्रयाग जनपद मुख्यालय से 25 किमी की दूरी पर स्थित है बच्छणस्यूं पट्टी का डुंग्रा गांव। यहां पहुंचने के लिए बद्रीनाथ राष्ट्ीय राजमार्ग पर खांकरा कस्बे से काण्डई-कमोल्डी-मोलखाखाल मोटर मार्ग पर डुंग्रा गांव मौजूद है। वर्तमान में यहां करीब 600 परिवार निवास करते हैं। और इसी गांव में मौजूद है आजादी से पहले की जेल। जिसे यहां के मालगुजार संचालित करते थे। तत्कालीन समय में यह क्षेत्र देवलगढ परगना के अंर्तगत आता था मगर अब यह रुद्रप्रयाग परगाना के अंर्तगत है। यहां आज भी इस कैदखाने की निशानियां मौजूद हैं किसी जमाने में यह किसी हवेली से कम नहीं थी मगर आज खण्डहर में तब्दील हो चुकी है और अब कुछ अंश ही यहां बचे हुए हैं।
ग्रामीणों के अनुसार इस हवेली पर एक बडा गेट हुआ करता था जो कि अब घ्वस्त हो चुका है और बताते हैं कि तत्कालीन समय में टिहरी नरेश द्वारा यहां के मालगुजार पर 1275 रुपये का अर्थ दण्ड भी लगाया गया था उसके पीछे कारण यह था कि पूरे गढवाल क्षेत्र में सबसे उंचा गेट टिहरी राज दरवार में हुआ करता था। इस कैदखाने में वैसे तो 11 कमरों की जेल थी मगर संरक्षण के अभाव व परिवार की आवश्यक्ता के अनुसार इसके अन्य भागों को तोड दिया गया और अब महज 3 कैदखाने ही यहां मौजूद हैं। इसी कैदखाने के उपर एक तिबार हुआ करती थी जिस पर बैठकर मालगुजार अपराधों को सुनते थे और फिर सजा मुकरर होती थी। कैदखाने के भीतर जाने का एक मात्र छोटा सा दरवाजा हुआ करता था और इन कैदखानों में कहीं भी न तो खिडकियां थी और ना ही कहीं से हल्का सा भी प्रकाश आने लायक अन्य कोई स्थान। कैदखाने इतने छोटे थे कि यहां पर कोई भी व्यक्ति खडा नहीं हो सकता था और घुटनों के बल ही यहां सजा बितानी होती थी।मौजूदा समय में इस परिवार की वरिष्ट सदस्या सुदामा देवी ही जिंदा हैं और इस कैदखाने के पहले थोकदार जिन्हें स्थानीय भाषा में पदान कहा जाता था वे थे सूर्ति सिंह। इनके बाद इस कैदखाने के थोकदार मूर्ति सिंह बने और अंतिम थोकदार के रुप में गोविन्द सिंह रहे।
यहां पर हर प्रकार के आरोपों के लिए सजा का भी अलग प्राविधान था। कुछ को शारीरिक श्रम दिया जाता था जिसके लिए यहां पर एक बडी पत्थर की शिलाखण्ड है इस खण्ड पर 19 ओखलियां व 3 चराटे आज भी मौजूद हैं बताते हैं कि आरोपियों से पहले तो पत्थर पर औखली खुदवाई जाती थी और फिर गांव के ग्रामीणों का अनाज इन कैदियों को पीसने के लिए दिया जाता था।
वहीं गांव के प्रधान का कहना है इस कैदखाने के बारे में हमने भी अपने बुर्जुगों से सुना है और अब इस दिशा में प्रयास करने की आवश्यक्ता है कि यह ऐतिहासिक घरोहर जिंदा रह सके जिससे आने वाली नई पीडी भी जान सके कि आजादी से पूर्व क्या कुछ ग्रामीण व्यवस्थाएं होती थी जिससे पूरा समाज चलता था।
भले ही जुल्म के इस कैदखाने ने सजाओं की कई इवारतें लिखी होंगी यह तो एक इतिहास है मगर आज भी जिस तरह से कैदखाने के भीतर जा कर अहसास होता है उससे तो साफ है कि गुलामी के दौरान की सजाएं भी उतनी ही वीभत्स होती थी। आज सरकार को चाहिए कि इन धरोहरों को संरक्षित किया जाय जिससे आने वाली पीडी समझ सके कि वास्तव में गुलामी की दास्तान क्या थी।

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