कारगिल की वीरगाथा उत्तराखंड के सपूतों के बिना अधूरी, फिर भी हो रही अनदेखी

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देहरादून: उत्तराखंड को वीरों की भूमि यूं ही नहीं कहा जाता।कारगिल युद्ध की वीर गाथा भी इस वीरभूमि के जिक्र बिना अधूरी है। सूबे के 75 सैनिकों ने इस युद्ध में देश रक्षा में अपने प्राण न्योछावर किए। राज्य का सैन्य इतिहास वीरता और पराक्रम के असंख्य किस्से खुद में समेटे हुए है।देश की सुरक्षा और सम्मान के लिए देवभूमि के वीर सपूत हमेशा ही आगे रहे हैं। इन युवाओं में सेना में जाने का क्रेज आज भी बरकरार है। लेकिन ,कारगिल युद्ध को 20 साल बीत चुके हैं। पर, सिस्टम की लापरवाही के कारण शहीदों के आश्रित आज भी अपने हक के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। इन्हें नौकरी की बात तो दूर कई के परिजनों को जमीन तक नहीं मिल पाई है।

कारगिल युद्ध के बाद केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकार ने शहीद के आश्रितों के लिए कईं घोषणाएं की थी। इसमें उन्हें पांच बीघा भूमि, एक बेटे को नौकरी, पेट्रोल पंप, ग्रीन कार्ड आदि शामिल था। लेकिन इनमें से केंद्र की ओर से की गई घोषणाएं तो लगभग पूरी हो चुकी है, लेकिन राज्य सरकार की घोषणाएं अब तक पूरी नहीं हो पाई है।देहरादून के 19 जवान कारगिल युद्ध में शहीद हुए थे। सभी को सरकार ने पांच बीघा भूमि देने का वायदा किया था।लेकिन, अभी तक मात्र चार शहीदों की वीरांगनाओं को जमीन मुहैया हो पाई है। उनमें से भी एक की जमीन पर भूमाफिया कब्जा जमाए बैठा है जबकि चार को कागजों में जमीन मुहैया हुई है कब्जा आज तक नहीं दिया गया।

आपको बता दें कि 1999 में करगिल की पहाड़ियों पर पाकिस्तानी घुसपैठियों ने कब्जा जमा लिया था, जिसके बाद भारतीय सेना ने उनके खिलाफ ऑपरेशन विजय चलाया. ऑपरेशन विजय 8 मई से शुरू होकर 26 जुलाई तक चला था। इस कार्रवाई में भारतीय सेना के 527 जवान शहीद हुए तो करीब 1363 घायल हुए थे। इस लड़ाई में पाकिस्तान के करीब तीन हजार जवान मारे गए थे, मगर पाकिस्तान मानता है कि उसके करीब 357 सैनिक ही मारे गए थे।

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