सियासत के अर्जुन से लेकर भीष्म पितामह तक की यात्रा – लालकृष्ण आडवाणी

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लालकृष्ण आडवाणी, भारतीय जनता पार्टी के लौहपुरुष, सारथी, कर्णधार, भीष्म पितामह और मार्गदर्शक के रूप में अलग- अलग भूमिकाओं में रहे हैं, वे पार्टी के इतिहास का अहम अध्याय रहे हैं, जिनकी उपस्थिती ने हर कदम पर पार्टी को सींचा हैं इसलिए, आडवाणी की भूमिका बीजेपी में महज एक वरिष्ठ नेता भर की नहीं है, बल्कि एक ऐसे पिता और गुरु की भी है, जिसने अपने हाथों से न जाने कितने बच्चों को गढ़ा और बड़ा बनाया। कौन नहीं जानता कि स्वयं नरेंद्र मोदी भी आडवाणी के ही गढ़े हुए हैं।

गांधी के बाद वो दूसरे ऐसे जननायक हैं जिन्होंने हिन्दू आंदोलन का नेतृत्व किया और पहली बार बीजेपी की सरकार बनावाई। अगर भारतीय जनता पार्टी की बात की जाएं तो अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी का नाम सबसे पहले लिया जाता हैं क्योकिं भारतीय जनता पार्टी की नींव रखने में इन दो व्यक्तियों का विशेष योगदान रहा हैं।

लाल कृष्ण आडवाणी 1951 से लेकर अभी तक, भारतीय जनता पार्टी में एक सक्रीय राजनेता की भूमिका निभा रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी ही नहीं, बल्कि जनसंघ और भाजपा के इतिहास में लालकृष्ण आडवाणी ‘लिविंग लीजेंड’ माने जाते हैं।

राजनीतिक जीवनशैली –

लालकृष्ण आडवाणी ने अपने करियर की शुरूआत 1942 में आर.एस.एस के स्वंयसेवी के रूप में की थी। मालूम हो कि आर.एस.एस एक हिंदु संगठन हैं। आडवाणी सबसे पहले कराची में ही आर.एस.एस के प्रचारक हुए और उनको अपनी सेवाएं देते हुए उन्होने आर.एस.एस की कई शाखाएं स्थापित की। फिर भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के बाद वे भारत आ गए। फिर वर्ष 1951 में डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जनसंघ की स्थापना के साथ से आडवाणी सन् 1957 तक पार्टी के सचिव रहे। वर्ष 1973 से 1977 तक आडवाणी ने भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष का दायित्व संभाला।

1977 में समाजवादी पार्टी, स्वतंत्र पार्टी, लोक दल, और जनसंघ ने मिलकर एक संघटन का निर्माण किया। इंदिरा गांधी के आपातकालीन शासन कई राजनीतिक पार्टियों को रास नहीं आया और इंदिरा गांधी की सरकार चुनाव हार गई। इसी के साथ जनता पार्टी के हाथ सत्ता आ गई। उस समय मोरारजी देसाई भारत के प्रधानमंत्री, एल .के आडवाणी सूचना एवं प्रसार मंत्री और अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री बने। फिर जनता पार्टी में एक नया मोड़ आया और कई दिग्गज और अनुभवी नेता ने जनता पार्टी छोड़कर एक नई पार्टी का निर्माण किया। इस पार्टी को वर्ष 1980 में भारतीय जनता पार्टी का नाम दिया गया। आडवाणी इस पार्टी के वशिष्ट एवं महत्तवपूर्ण नेता थे। इसके बाद वे उच्च सदन(राज्यसभा ) के लिए पार्टी द्वारा मध्यप्रदेश से मनोनित हुए।

अटल बिहारी वाजपेयी को नयी भारतीयजनता पार्टी के सबसे पहले अध्यक्ष के तौर पर चुना गया। अटल जी की अध्यक्षता में पार्टी में हिदुत्व की भावना और अधिक प्रज्वलित हुई। लेकिन 1984 में बी.जे.पी की सरकार को सत्ता गवांनी पड़ी । 1984 के चुनाव के कुछ समय पहले इंदिरा गांधी की अचानक मृत्यु के बाद सभी वोट कांग्रेस को ही मिले और बीजेपी को सिर्फ दो लोक सभा सीटो से ही संतोष करना पड़ा। इसके बाद अटल जी को अध्यक्ष पद से हटाकर एल . के आडवाणी को नया अध्यक्ष घोषित किया गया। आडवाणी के नेतृत्व में राम जन्मभूमि का मुद्दा उठाया गया और आज भी भाजपा का राजनीतिक मुद्दा ‘’राम मंदिर निर्माण’’ हैं। 1980 में विश्व हिंदु परिषद ने राम मंदिर निर्माण की मुहिम शुरू की। भाजपा नेताओं और कई हिंदुओं का यह मानना हैं कि आयोध्या श्री राम की जन्मभूमि है। यहाँ स्थित बाबरी मस्जिद से पहले राम मंदिर ही था, लेकिन मुगल शासक बाबर ने उस मंदिर को तुड़वा दिया और उसकी जगह मस्जिद का निर्माण कर दिया। और इसी के विरोध में सभी हिंदु और बी.जे.पी नेता मस्जिद की जगह राम मंदिर बनवाना चाहते हैं।

इसी दौरान वर्ष 1990 में राम मंदिर आंदोलन के दौरान आडवाणी ने सोमनाथ से आयोध्या के लिए रथयात्रा निकाली। आडवाणी ने जब रथ यात्रा शुरू की थी तो वो हिंदुत्व और भाजपा दोनों को प्रमोट कर रहे थे। नतीजा ये हुआ कि कुछ सालों में भाजपा की सीटें संसद में दो से 182 हो गईं। पार्टी अपने गढ़ उत्तर भारत से दूसरे प्रांतों में फैलाने लगी। स्वतंत्र भारत में धर्म के नाम पर ऐसी सियासी रैलियां इस से पहले कभी नहीं निकाली गई थीं। देश की राजनीति में सर्वाधिक यात्राएं निकालने वाले आडवाणी ही एकमात्र नेता हैं। बनियों की पार्टी कहलाने वाली भाजपा जाटों को भी स्वीकार्य होने लगी। पार्टी की लोकप्रियता बढ़ी। लेकिन जब पार्टी केंद्र में आई तो आडवाणी की जगह अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। आडवाणी उस समय विपक्ष और सहयोगी पार्टियों के बीच काफी विवादास्पद नेता माने जाते थे और गठबंधन सरकार की मजबूरियों के कारण वो प्रधानमंत्री बनने से वंचित रहे।

उनके नेतृत्व में 6 बड़ी यात्राएं हुई जिन्होने भाजपा को राजनीति में बहुत मदद की। यात्राओं के सफल होने का श्रेय आडवाणी को ही जाता है। आडवाणी को रथ यात्रा का नेता भी कहा जाता है।

  1. राम रथ यात्रा – यह आडवाणी की सबसे पहली रथ यात्रा थी। आडवाणी के नेतृत्व में यह यात्रा गुजरात के सोमनाथ मंदिर से 25 सितंबर 1990 से प्रारंभ होकर 30 अक्टूबर को आयोध्या पहुंची। इस यात्रा का मुख्य उद्धेश्य राम मंदिर  का निर्माण था। राजनीतीक चाल मानते हुए इस यात्रा को उत्तर प्रदेश और बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद ने इसे रोक दिया। उनका मानना था कि यह यात्रा भारत की सांप्रदायिकता को प्रभावित करेगी। इन सब बातों का भाजपा और उसकी रथ यात्रा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और आडवाणी के नेतृत्व में हुई इस यात्रा से भाजपा सशक्त हुई और  1991 के चुनाव के दौरान भाजपा, कांग्रेस के बाद सबसे ज्यादा वोट हासिल करने वाली पार्टी रही।
  2. जनादेश यात्रा – भारत के चार कोनों से 1993 से ये यात्रा शुरू हुई। आडवाणी जी ने मैसूर से इस यात्रा की अगुवाई की। 14 राज्यों और 2 केंद्र शासित से होती हुई , ये यात्रा 25 सितंबर को बिहार में मिली। इस यात्रा का उद्धेश्य भारत के नागरिक को उसके अपने धर्म को मानने से संबंधित दो बिलों को पारित करवाना था।
  3. स्वर्ण जयंती रथ यात्रा- भारत की आजादी के 5वीं सालगिराह के अवसर पर आडवाणी ने इस यात्रा का आगाज़ किया। इस यात्रा के द्वारा पूरे देश में आजादी का जश्न मनाया गया। इस यात्रा को आडवाणी ने मई 1997 से जुलाई 1997 तक पूरा किया। इस यात्रा को स्वर्ण जयंती रथ यात्रा- राष्ट्र भक्ति की रथ यात्रा का नाम दिया। इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य भारतीयों के दिल में राष्ट्र भक्ति की भावना जगाना था।
  4. भारत उदय यात्रा- 2004 में अटल विहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान देश की कई क्षेत्र में उन्नति हुई । भारत की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई। इसी कारण आडवाणी ने बहरत उदय यात्रा निकालते हुए कहा, कि भाजपा सरकार के समय भारत का उदय हुआ हैं और इस यात्रा द्वारा भारत की उन्नति का जश्न मनाया गया। यह यात्रा मार्च 2004 में आडवाणी के नेतृत्व में निकाली गयी।
  5. भारत सुरक्षा यात्रा – मार्च 2006 में वाराणसी के हिंदु तीर्थ स्थान पर बम धमाके हुए थे। इसके भाजपा सरकार ने केंद्र में बैठी कांग्रेस का गैर जिम्मेदार ठहराते हुए आरोप लगाए कि कांग्रेस सरकार देश की सुरक्षा पर ध्यान नहीं दे रही हैं। इसी के विरोध में आडवाणी ने 6 अप्रैल 2006 से 10 मई 2006 तक भारत सुरक्षा यात्रा निकाली। इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य देश को आतंकवाद, भ्रष्टाचार, अल्पसंख्यक पर राजनीतिक, प्रजातंत्र की रक्षा और महंगाई के प्रति सजग करना था।
  6. जन चेतना यात्रा- भाजपा के नेता श्री जयप्रकाश नारायण की जन्मस्थली सिताब दायरा, बिहार से शुरू हुई जनचेतना यात्रा की अगुवाई आडवाणी ने अक्टूबर 2011 से की। कांग्रेस सरकार के दौरान देश में फैल रहे भ्रष्टाचार के विरोध में यह यात्रा निकाली गयी। यह यात्रा बहुत ही बड़ी और सफल साबित हुई। इसमें दिल्ली के रामलीला मैदान पर भाजपा और एन.डी.ए के कई दिग्गज नेता भी शामिल हुए। आडवाणी ने इस यात्रा को उनकी सबसे सफल यात्रा बताया।

आडवाणी दिग्गज तथा दूरदर्शी नेता थे, लेकिन राजनीति के इस दौर में आडवाणी पर कई आरोप भी लगे। उन पर हवाला ब्रोकर्स से रिश्वत लेने का आरोप लगाया गया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सबूतों के अभाव में इन्हें बाइज्जत बरी कर दिया।

2004 के चुनाव के बाद बी.जे.पी की सत्ता काफी सशक्त नज़र आ रही थी। इस पर आडवाणी ने दावा किया कि कांग्रेस पार्टी चुनाव में 100 से अधिक सीट नहीं ला पाएगी। लेकिन हुआ कुछ और ही। भाजपा की हार हुई और उसे लोक सभा में विपक्ष में बैठना पड़ा। केंद्र में कांग्रेस की सरकार आई और डॉ. मनमोहन सिंह ने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। 2004 के बाद अटल जी ने आडवाणी को बीजेपी में सक्रीय भूमिकाओं में आगे किया और 2009 तक आडवाणी विपक्ष के अध्यक्ष रहें। लेकिन इस दौरान उन्हें पार्टी का ही विरोध झेलना पड़ा। उनके करीबी माने जाने वाले पार्टी के नेता मुरली मनोहर जोशी, मदनलाल खुराना, उमा भारती ने उनका विरोध कर दिया। एल.के.आडवाणी का दौर यही खत्म नहीं हुआ। एक बार जून 2005 में वो कराची के दौरे पर गए, जो कि उनका जन्मस्थान हैं, वहां उन्होने मोहम्मद अली जिन्नाह को एक धर्मनिरपेक्ष नेता बताया। यह बात आर.एस.एस के हिंदू नेताओं के गले नहीं उतरी और आर.एस.एस ने इस बयान के विरोध में आटवाणी के इस्तीफे की मांग कर दी। आडवाणी जी को विपक्ष के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा, लेकिन बाद में उन्होने अपना इस्तीफा वापस ले लिया।

राजनीती में बुरा दौर – 2009 चुनाव हारने के बाद एल.के.आडवाणी ने पार्टी के दूसरे नेताओं के लिए रास्ता साफ किया और पार्टी में ज्यादा सक्रिय नहीं हुए। 2009 में सुषमा स्वराज भाजपा की ओर से लोक सभा में विपक्ष के अध्यक्ष के रूप में चुनी गयी। 2014 के चुनाव के लिए नरेंद्र मोदी की सभी मुहिमों में प्रबल दावेदारी एवं भागीदारी रही और इस पर आडवाणी ने नाराज होते हुए बीजेपी पर आरोप लगाते हुए कहा कि यह पार्टी श्याम प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, ननजी देशमुख और अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा बनाई गई पहले जैसी पार्टी नहीं रही। इसके बाद 11 जून 2013 में आडवाणी ने भाजपा के सभी पद से इस्तीफा दे दिया। लेकिन भाजपा की वरिष्ठ समिति ने 11 जून 2013 को इस्तीफा अमान्य करते हुए बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने आडवाणी को आश्वासन देते हुए कहा, कि पार्टी में उनकी भूमिका महत्तवपूर्ण हैं और पार्टी को हमेशा ही आडवाणी जैसे दिग्गज, अनुभवी नेता की आवश्यकता रहेगी।

पिछले कुछ समय से आडवाणी अपनी मौलिकता खोते हुए नज़र आ रहे हैं। जिस आक्रामकता के लिए वो जाने जाते थे, उस छवि के ठीक विपरीत आज वो समझौतावादी नज़र आते हैं।

2002: यह ऐसा साल था जिसने भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी नाम के  के व्यक्तित्व को परिभाषित करने का कार्य किया। फरवरी 2002 में गोधरा कांड के बाद गुजरात में भड़के भीषण साम्प्रदायिक दंगों में मुस्लिम समुदाय के हजारों लोगों की नृशंसतापूर्वक हत्या कर दी गई। मोदी सरकार पर आरोप लगा कि उनका प्रशासन मूकदर्शक बना रहा और दंगों की आग पर काबू पाने के लिए जरूरी कदम नहीं उठाए। यहां तक कि प्रधानमंत्री वाजपेयी ने भी मोदी को ‘राजधर्म’ का पालन करने की नसीहत दी। पीएम वाजपेयी ने मोदी को बर्खास्त करने का भी मन बना लिया था, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी ही वह व्यक्ति थे, जिनके वीटो से मोदी बच गए।

2003 में एनडीए शासनकाल में गुजरात दंगों के बाद ‘राजधर्म’ नहीं निभा पाने के कारण वाजपेयी मोदी से इस्तीफा मांगने के पक्ष में थे। लेकिन उस वक्त उनके सबसे बड़े समर्थक लालकृष्ण आडवाणी ने उनसे कहा था- ऐसा मत कीजिए, बवाल हो जाएगा।

दस साल बाद 2013 में वही लालकृष्ण आडवाणी अब बीजेपी और आरएसएस से मिन्नत कर रहे थे कि वे अभी मोदी को पीएम कैंडिडेट नहीं बनवाएं। उन्हें जवाब मिला कि अब और देरी की, तो बवाल हो जाएगा।

सवाल उठता है कि आखिर इन दस बरसों में ऐसा क्या हुआ कि पूरा चक्र पलट गया और और बीजेपी के भीष्म पितामह अपने शिष्य से ही नाराज हो गए। आडवाणी की मोदी से नाराजगी के ये पांच अहम कारण बताएं गए –

  1. गुजरात कनेक्शन

    लालकृष्ण आडवाणी इस बात से आहत रहे कि हाल में गुजरात में बीजेपी की मजबूती का सारा क्रेडिट सिर्फ नरेंद्र मोदी को दिया गया, जबकि वहां उन्होंने पार्टी को जड़ से सींचा था। दरअसल आडवाणी मोदी के मुख्यमंत्री बनने से पहले 1991 से ही गुजरात से लोकसभा सीट जीतते रहे हैं। गुजरात में पहली बार आडवाणी ने मोदी को प्रोजेक्ट किया था। ऐसे में उन्हें इस बात पर मोदी से दु:ख रहा कि मोदी ने बाद में इस बात को स्वीकार नहीं किया और सारा क्रेडिट खुद लेते रहे।

    2. आडवाणी-सुषमा-मोदी

    आडवाणी हाल के वर्षों में सुषमा स्वराज को अधिक तरजीह देते रहे। आडवाणी ने कई मौकों पर सुषमा को अपना उत्तराधिकारी भी संकेतों में बताया। उनके पक्ष में एक गुट भी था। लेकिन मोदी न सिर्फ सुषमा से आगे बढ़ते गए, बल्कि आडवाणी के गुट में सेंध लगाते रहे। यह आडवाणी को नागवार गुजरा।

    3. रथयात्रा, गुजरात और बिहार 

    2011 में आडवाणी ने पूरे देश में करप्शन के खिलाफ यात्रा निकाली थी। उस वक्त आई खबरों के मुताबिक, मोदी इस आयोजन के खिलाफ थे। साथ ही, इसके बिहार से शुरू करने के फैसले पर भी विवाद हुआ कि यह गुजरात से शुरू होना चाहिए था। इन विवादों के बीच आडवाणी की यह यात्रा सफल नहीं रही।

    4. पीएम न बनने का दुख

    लालकृष्ण आडवाणी के प्रधानमंत्री बनने की हसरत कभी छिपी नहीं रही। उन्होंने इस बात से कभी इनकार नहीं किया कि वह 2014 के चुनाव में अपनी दावेदारी को वापस ले रहे हैं। इसके अलावा जेडीयू और दूसरे सहयोगी दल भी उनके पक्ष में रहे। इन सबके बीच उनको नजरअंदाज कर मोदी ने जिस तेजी से इस पद के लिए लॉबी की, आडवाणी की उनसे नाराजगी बढ़ती गई।

    5. नहीं मिली एहसान की कीमत 

    लालकृष्ण आडवाणी ने मोदी को जरूरत के वक्त लाइफलाइन दी। लेकिन उन्हें इस बात का अफसोस रहा कि जब उन्हें मोदी के समर्थन के जरूरत पड़ी, तो वह चुप रहे। जिन्ना प्रकरण में जब आडवाणी पूरे अलग-थलग पड़े तब भी मोदी ने एक शब्द भी नहीं बोले। वहीं मोदी को जब आरएसएस की नजदीकी और आडवाणी के साथ में कोई एक विकल्प चुनने का मौका आया, तो उन्होंने आरएसएस का साथ चुना।

राजनीति की विडंबना देखिये कि जिस आडवाणी को विरासत में वो बीजेपी मिली थी जो ’84 में इंदिरा लहर में ऐसी डूबी कि सिर्फ दो नेता ही संसद पहुंच सके थे। उसी बीजेपी को सत्ता के शिखर पर पहुंचाने वाले आडवाणी आज राजनीतिक शून्य पर अपने मौन के साथ एक सवाल बन चुके हैं।

भाग्य और सियासत के खेल का इत्तेफाक है कि अपनी पार्टी को पहला प्रधानमंत्री देने वाला आज राष्ट्रपति बनने की राह पर देखा भी नहीं जा सका.

साल 2002 का वो दौर था जब वाजपेयी, आडवाणी और भैरोसिंह शेखावत की त्रिमूर्ति हुआ करती थी उस वक्त एनडीए ने एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाया था। आज जब बीजेपी खुद सत्ता के शिखर पर है तो मोदी सरकार ने अगले महीने होने वाले राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद को एनडीए की ओर से उमीदवार चुना है बीजेपी संसदीय बोर्ड की बैठक के बाद बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने इसका ऐलान किया। जिस पर सभी हैरान हैं।

इसकी सबसे बड़ी वजह है बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को राष्ट्रपति उम्मीदवार न बनाया जाना। बीते दिनों खबरें आती थीं कि पीएम मोदी आडवाणी को देश का राष्ट्रपति बना सकते हैं। लेकिन कोविंद को एनडीए की ओर से उमीदवार चुने जाने के साथ ही लालकृष्ण आडवाणी के लिए कोई भी बड़े पद को पाने का आखिरी मौक़ा भी हाथ से निकल गया..।

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