राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी – अपराधियों के प्रति रहे सख्त…

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देश के 13 वें राष्ट्रपति के रूप में प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल इस महीने के अंत में खत्म हो जाएगा। छह दशकों में फैले एक राजनीतिक कैरियर के साथ, प्रणव मुखर्जी शायद एकमात्र राजनीतिज्ञ हैं, जो कई मौकों पर प्रधान मंत्री बनने के करीब आ गए थे, लेकिन नियति के पास उनके लिए कुछ और योजनाएं थीं।

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल अब चंद दिन बचे हैं। कांग्रेस की सरकार और विपक्ष में रहते हुए लंबे समय तक मुश्किलों से निकालने के बाद प्रणब मुखर्जी 22 जुलाई 2012 को राष्ट्रपति बने थे। उनका कार्यकाल 24 जुलाई को पूरा होने वाला है। ऐसे में स्वभाविक है कि पूरा देश प्रणब मुखर्जी को उन्हें उनके कामों के लिए याद करेंगे।

राष्ट्रपति के पास आपने कई आधिकारो में से एक अधिकार है क्षमा दान जिसका विशेष महत्व है जिसके जरिये राष्ट्रपति दया याचिका भेजने वाले की सजा कम या फिर ख़त्म कर सकते है और फासी की सजा को भी रुकवा सकते है।

संविधान के अनुच्छेद 72 के अंतर्गत निहित क्षमादान की शक्ति, देश की जनता द्वारा राष्ट्रपति पर विश्वास का रूप है और एक सांविधानिक कर्त्तव्य भी है, जिसका निर्वाह राष्ट्रपति याचिका को ख़ारिज या स्वीकृत कर करते है।

भारत में आजादी के बाद सबसे पहले फांसी नाथूराम गोडसे को दी गई थी, जिन्होंने राष्ट्र-पिता महात्मा गाँधी कि हत्या की थी तभी से भारत में आपराधियों को फासी की सजा सुनाने का चलन शुरू हुआ, लेकिन भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने 1983 के फैसले में साफ कर दिया था कि सिर्फ “दुर्लभों में दुर्लभ” मामले में ही फांसी हो सकती है।

परन्तु “दुर्लभों में दुर्लभ” क्या है और क्या वक्त के साथ इसकी परिभाषा बदलती है, इसका जवाब भी तलाशने कि जरूरत है, वही फ़ासी या कोई अन्य सजा देने के बाद भी भारतीय संविधान ने उस सजा के माफ़ होने का रास्ता दे रखा है जो राष्ट्रपति के चौखट से होते गुरता है।

देश के प्रथम नागरिक कहलाये जाने वाले राष्ट्रपति याचिका करता पर लगे क़ानूनी धाराओं को मध्यनजर रखते हुए अपना फैसला लेते है, वही भारत ऐसे देश है जहा अहिंसा को बढावा देने कि बात कही जाती है इसलिए क्षमायाचिकाओं को यहाँ काफी गंभीरता से लिया जाता है और लगभग आधे से ज्यादा याचिका में माफ़ी भी दे दी जाती है।

लेकिन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल अन्य राष्ट्रपतियों के मुकाबले अलग रहा उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति आर वेंकटरमण के भाती ही क्षमा याचिकाओ को उतनी तवज्जों नही दी, जितनी कि अन्य राष्ट्रपतियों ने दी। जिसके बाद से भारत में फासी कि सजा का सिलसिला बढ़ गया।

मुखर्जी ने बतौर राष्ट्रपति तीन बड़े आतंकी अजमल, अफजल और याकूब को फांसी दिलाने में अहम भूमिका निभाई। राष्ट्रपति प्रणव ने 26/11 हमले के दोषी अजमल कसाब, संसद भवन पर हमले के दोषी अफजल गुरु और 1993 मुंबई बम धमाके के दोषी याकूब मेनन की फांसी की सजा स्वीकृत करी। उन्होंने कसाब को 2012, अफजल गुरु को 2013 और याकूब मेनन को 2015 में फांसी हुई थी।

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के पास पूरे कार्यकाल में करीब 37 क्षमायाचिका आए, जिसमें से राष्ट्रपति ने 28 अपराधियों की फांसी को बरकरार रखा। कार्यकाल की समाप्ति के पहले मई महीने में भी प्रणब मुखर्जी ने रेप के दो मामलों में दोषियों को क्षमा देने से मना कर दिया, एक मामला इंदौर का था और दूसरा पुणे का।

पूरे कार्यकाल में प्रणब मुखर्जी ने चार दया याचिका पर फांसी को उम्रकैद में बदला। ये बिहार में 1992 में अगड़ी जाति के 34 लोगों की हत्या के मामले में दोषी थे। राष्ट्रपति ने 2017 नववर्ष पर कृष्णा मोची, नन्हे लाल मोची, वीर कुंवर पासवान और धर्मेन्द्र सिंह उर्फ धारू सिंह की फांसी की सजा को आजीवन कारावास की सजा में तब्दील कर दिया।

बात अगर पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम की करे तो उन्होंने अपने कार्यकाल में केवल एक ही फासी की सजा को स्वीकृत करा था। यूं तो डॉ. अब्दुल कलाम फांसी की सजा के पक्षधर नहीं थे, लेकिन जब बच्चों के साथ रेप के दोषी धनंजय का मामला उनके पास आया तो उन्होंने उसकी फांसी बरकरार रखी। धनंजय चटर्जी को 2004 में फांसी दी गई। इसके अलावा पत्नी, दो बच्चों और साले की हत्या के दोषी पाए गए जयपुर के खेराज राम की सजा को कलाम ने 2006 में उम्रकैद में बदला।

यूपीए के कार्यकाल में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने सबकी फांसी टाल दी। राष्ट्रपति रहीं प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने 30 दया याचिकाएं स्वीकार की। उन्होंने सरकार से फांसी की सजा खत्म करने के लिए पहल करने को भी कहा था। वहीं आर वेंकटरमण ने सबसे ज्यादा दया याचिकाएं खारिज करने का रिकॉर्ड है। उन्होंने 1987 से 1992 के बीच 44 याचिकाएं खारिज की।

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