कितना बदला पत्रकारिता का दौर, पहाड़ी की जुबानी…

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पूर्णिमा मिश्रा

निहत्थे हैं हम लोग, पर गज़ब की जंग लड़ते हैं…
कलम को हाथ में रख, अदब की जंग लड़ते हैं…

कुछ खास कह रही हैं यह पंक्तियां, कि आखिर क्या है पत्रकारिता?

पत्रकार? यह शब्द अपने आप में एक रहष्य है। इस शब्द के कई मायने हैं, जैसे कि ये अनसुने, अनछुए और अनसुलझे रहष्यों को उजागर कर समाज को एक दिशा देने का भी इस शब्द को धारण करने वाले व्यक्ति का काम है।

इसके कारण समाज में पत्रकार को चौथा स्तंभ माना गया है। जो सभी दिशा और दशाओं को परखकर एक पृष्ठभूमि बनाता है और जनमानस के समक्ष पेश करता है। देश में चौथा स्तंभ का दर्जा पाए पत्रकार एक ऐसा जरिया है, जो समाज में व्याप्त कुरीतियों व अच्छाईयों को उजागर कर समाज की पहेली समाज के सामने ही प्रस्तुत करता है।

आज हम आपको राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस के उपल्क्ष में बता रहे हैं एक ऐसे वरिष्ठ पत्रकार के जीवन के उन लम्हों को जिनको पत्रकारिता जगत में पिछले 50 सालों में समाज को एक दिशा दी। 50 वर्ष के दौरान वयोवृद्ध पत्रकार रमेश पहाड़ी ने पत्रकारिता को एक मिशन के रूप में लिया और उन्होंने एक मजबूत प्रहरी के रूप में कार्य किया। आइए जानिए उनकी पूरी कहानी उन्हीं की जुबानी…

भले ही रमेश पहाड़ी को पत्रकारिता में 50 साल पूरे हो गए हों, लेकिन उनसे बात कर अभी भी यही लगता है कि उनमें इस उम्र में भी उतना ही जुनून है जो एक 25 साल के युवा पत्रकार में। वो आज भी उतनी ही बेबाकी से लिखते हैं, जैसे कि आजादी के समय में एक क्रांतिकारी के शब्द।

रमेश पहाड़ी ने पत्रकारिता की शुरूआत 1966 नव भारत अखबार से की, जिसके बाद रमेश पहाड़ी को राम प्रसाद बहुगुणा के साथ नंद प्रयाग में देवभूमि साप्ताहिक अखबार 1972 में सह संपादक की भूमिका दी गई। जिसके बाद रमेश पहाड़ी ने सन् 1977 में अपना एक साप्ताहिक अखबार अनिकेत शुरू किया।

रमेश जी की मानें तो पत्रकारिता के मिशन में उनके सामने कई चुनौतियां आईं। वे बताते हैं कि पत्रकार को एक निश्चित वेतन में ही पूरा गुजर-बसर करना पड़ता है। उन्होंने अपने दिल की पीड़ा भी हमसे व्यक्त की और उनका कहना यह भी रहा कि पत्रकारिता के उस दौर में उनको पैसे का अभाव हर वक्त रहा। बतौर पहाड़ी बच्चों को मैं अच्छे स्कूलों में नहीं भेज पाया और शादी के 49 साल बाद भी अपनी पत्नी के लिए एक जेवर तक नहीं जोड़ पाया।

पहाड़ी आगे कहते हैं कि मैंने पत्रकारिता को दिन-प्रतिदिन बदलते देख रहा हूं। उनका कहना है कि पहले समाज पत्रकार को एक बड़ा सेवक मानता था, लेकिन समय बीता और समाज से धीरे-धीरे सेवक की पहचान अब धूमिल होती गई। उनका साफ तौर पर कहना है कि सुविधाओं के साथ पत्रकारिता के मायने जरूर बदले हैं, लेकिन साथ ही यह मायने कमिशन बनाने में अब ज्यादा जोर पकड़ने लगे हैं। जिसके लिए मैं पत्रकार को नहीं बल्कि समाज को ही दोषी मानता हूं।

वहीं रमेश पहाड़ी की मानें तो एक पत्रकारिता के आने वाले 30-40 सालों में एक बार फिर पत्रकार की अपनी खोई हुई छवि उसे वापस मिलेगी और समाज एक बार फिर पत्रकार को पत्रकार ही कहेगा। ये वो पत्रकार होगा जो समाज की कुरीतियां , बुराईयां, अच्छाईयां तीनों स्तंभों के बीच सामंजस्य बनाने का काम करेगा।

वहीं पत्रकार के इस पहलू को लेकर जब हमने लेखनी के धनी इतिहासकार गोपाल भारद्वाज से बात की तो उन्होंने कहा कि पत्रकारिता के क्षेत्र में समय के साथ बदलाव तो हुआ है। और अब एक पत्रकार को जंजीरों का सहारा लेकर आगे बढ़ना पड़ता है। जिसका परिणाम यह है कि आज पत्रकार समाज के बीच विश्वस्नीयता खोता जा रहा है। हर दिन पत्रकारिता और इसके क्षेत्र में बदलाव नजर आ रहा है। बदलाव और हावी होती बाजारीकरण के कारण पत्रकारिता के मायने जरूर बदले हैं लेकिन आज भी जिंदा है!

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