साथ भाषण देंगे बुआ और बबुआ…कई जगहों पर होंगी साझा रैलियां

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लखनऊ : अखिलेश और मायावती ने अपनी पार्टियों की पुरानी कटु शत्रुता भूल कर हाथ तो मिला लिया था लेकिन यह सवाल बार-बार पूछा जा रहा था कि प्रदेश के कस्बों-गांवों में पिछड़ी जातियों और दलितों का जो पुराना वैमनस्य है, उसके चलते दोनों के वोट एक दूसरे को ट्रांसफर होंगे? अपने वोट दूसरे को दिला पाने में मायावती की क्षमता पर तो संदेह नहीं, लेकिन पिछड़े, खासकर यादव वोटर का दलित पार्टी को अपने वोट देने को राजी होंगे? इस सवाल का एक हद तक उत्तर गोरखपुर, फूलपुर और कैराना लोक सभा उप-चुनाव के नतीजों से मिल गया था, जहां विपक्ष के संयुक्त प्रत्याशी ने भाजपा को इन महत्त्वपूर्ण सीटों पर हरा दिया था। अब प्रदेश में कम से कम ग्यारह साझा रैलियाँ करने के फैसले ने बता दिया है कि गठबंधन का जातीय समीकरण मजबूत ही होगा और भाजपा के लिए सबसे बड़ी बाधा बनेगा।

मायावती और अखिलेश अपनी-अपनी पार्टी के प्रत्याशियों के पक्ष में अलग-अलग रैलियां और सभाएं करते तो उसका एक-दूसरे के मतदाताओं पर उतना असर नहीं पड़ता। चुने हुए क्षेत्रों में उनका एक मंच से भाजपा को हराने की अपील करने से कहीं गहरा असर होगा। इससे एकजुटता और गठबंधन के रिश्तों की मजबूती का संदेश मतदाताओं तक जाएगा। दलितों-पिछड़ों पर उनकी अपील का असर गहरा होगा। भाजपा इस असर का मुकाबला करने की तैयारी में न हो, ऐसा कैसे हो सकता है। मोदी और अमित शाह की टीम चुनाव जीतने की रणनीतियों में माहिर मानी जाती है। इसलिए ऐसी सम्भावना को देखते हुए उनकी तैयारी पहले से चल रही है। वे एक साथ कई मोर्चों पर काम कर रहे हैं।

2013 से ही भाजपा ने उत्तर प्रदेश के गैर-जाटव दलितों और गैर-यादव पिछड़ों को अपने पाले में करने का अभियान चलाया। 2014 के लोक सभा और 2017 के प्रदेश विधान सभा चुनावों में दलितों-पिछड़ों का उसे अच्छा समर्थन मिला। इस बार भी वह दलित-पिछड़े चेहरों पर बड़ा दाँव लगाएगी। मोदी जी की पिछड़ी जाति के नेता की छवि तो बहुप्रचारित है ही। सहयोगी दलों, अपना दल और सुहेलदेव राजभर समाज पार्टी के नेताओं की नाराजगी दूर करके कुर्मी, राजभर और उनकी समर्थक जातियों को साधने में भी भाजपा ने देर नहीं लगाई। दूसरी रणनीति, सपा-बसपा के असंतुष्ट नेताओं को अपने पाले में ले जाने का है। सपा-बसपा गठबंधन होने से दोनों दलों के करीब 40 सशक्त उम्मीदवार टिकट वंचित हो रहे हैं। ये वे नेता हैं जो गठबंधन न होने की स्थिति में अपनी-अपनी पार्टी का टिकट पाते और पूरी ताकत से चुनाव लड़ते, क्योंकि उनके पास खास क्षेत्रों में अपना निश्चित जातीय आधार है।

भाजपा ऐसे टिकट-वंचित दलित-पिछड़े नेताओं को अपने साथ ले रही है। पिछले दो महीने में सपा के कुछ और बसपा के कम से कम दो दर्जन ऐसे नेता भाजपा में शामिल हो चुके हैं, इनमें से कुछ को भाजपा टिकट देगी। बाकी को दूसरी तरह पुरुस्कृत करेगी। इनके जरिये वह सपा-बसपा के वोट बैंक में सेंध लगाएगी। इसी तरह, शिवपाल यादव की पार्टी को प्रकारांतर से प्रोत्साहित करके भाजपा यादव वोटों को यथासम्भव बांटने के प्रयास में कोई कसर उठा न रखेगी। कांग्रेस के अलग राह चुनने को भी भाजपा अपने लिए अवसर मान रही है। गोरखपुर, फूलपुर और कैराना के उपचुनाव में कांग्रेस भी विपक्ष के साथ थी। इस बार गठबंधन से बाहर होने पर पूरे प्रदेश में न सही, करीब एक दर्जन सीटों पर कांग्रेस अच्छी लड़ाई लड़ेगी। अन्य सीटों पर भी कुछ हजार भाजपा-विरोधी वोट तो काटेगी ही। हालांकि इसमें खुद भाजपा के सवर्ण वोटों के कटने का खतरा भी अंतर्निहित होगा। उस पर भाजपा की नजर होगी ही।

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