खटीमा गोलीकांड की 24वीं बरसी आज, अब भी शहीदों के सपनों के उत्तराखंड का इंतजार

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हैल्लो उत्तराखंड न्यूज़ विशेष 

देहरादून: आज हम जिस उत्तराखंड राज्य में रह रहे हैं। क्या हम उसमें उस तरह से रह पा रहे हैं, जिस तरह उत्तराखंड आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों ने सपना देखा था..? क्या हम ओ चीजें हासिल कर पाए, जिनके हमने अरमान संजोए थे…? क्या आज हम पहाड़ और पहाड़ियों को समृद्ध देख पा रहे हैं…? क्या हम खुद को अपने घरों में सुरक्षित महसूस कर पा रहे हैं…? अगर नहीं तो, उन कुर्बानियों का क्या…? जो हमें राज्य देने के लिए आंदोलनकारी शहीदों ने दी।
हम हर साल आंदोलनकारियों को उनकी कुर्बानियों के लिए याद करते हैं। पर क्या से सही मायने में श्रद्धांजलि होगी कि हम उनकी स्मृति में बने स्मारकों पर पूरे साल लगी धूल को साल में एक बार झाड़-फूंक कर हटा देते हैं। उनके लिए सही श्रद्धांजलि उनके सपनों का उत्तराखंड ही हो सकता है। समृद्ध, संपन्न हौर खुशहाल उत्तराखंड। जिसे हम राज्य बनने के बाद अब तक सही मायने में हासिल नहीं कर पाए हैं। आज राज्य के लिए कुर्बानी देने वाले खटीमा गोलकांड के शहीदों को याद करने का दिन है। राज्य आंदोलन का काला दिन। काली घटना। इसके अलगे दिन मसूरी गोली कांड भी हुआ था। यानि 1 और 2 सितंबर 1994 को लगातार दो गोलीकांडों ने पूरे पहाड़ को झकजोर कर रख दिया था। हालांकि इसके एक माह बाद एक और काला दिन उत्तराखंड आंदोलन के इतिहास में रामपुर तिराहा कांड रूप में दर्ज हुआ। कई आंदोलनकारी मारे गए। मां-बहिनों की अस्मत लूटी गई।
1 सितंबर 1994 का दिन आज भी हर उत्तराखंडी को याद है। लोग उस काले दिन को भुलाने के बाद भी नहीं भूल पाते। आज जो मुट्ठीभर लोग राज्य को बचाने की आवाज बुलंद करते हैं। उनमें इन्हीं शहीदों की ताकत जिंदा है। वैसे तो राज्य निर्माण की मांग 1897 से चली आ रही थी, लेकिन 1 सितंबर को खटीमा में जो हुआ। उसने राज्य निर्माण की मांग को एक युद्ध में बदल दिया था। दरअसल, एक सितंबर 1994 को सुबह करीब 10 बजे रामलीला मैदान से 20 हजार से अधिक राज्य समर्थकों का जुलूस मुख्य मार्गो से होता हुआ सर्कस ग्राउंड पहुंचा। वहां से फिर तहसील की ओर लौटने लगा। जनसैलाब से राज्य विरोधी शक्तियों और प्रशासनिक अधिकारियों के होश उड़ गए। कोतवाली के पास आंदोलनकारियों पर पथराव शुरू हो गया।
पुलिस ने पहले लोगों पर लाठियां भांजीं, फिर आंसू गैस के गोले छोड़े। उस समय के कोतवाल डीके केन ने गोलियां चलानी शुरू कर दीं और कुछ ही देर में तहसील मैदान और संड़कें खूल से लाल थी। दोपहर करीब एक बजे कर्फ्यू लगा दिया गया, जो 18 सितंबर तक लगा रहा। पुलिस तांडव में सात आंदोलनकारी भवान सिंह सिरौला, गोपी चंद, धर्मानंद भट्ट, प्रताप सिंह मनौला, परमजीत, सलीम, रामपाल शहीद हो गये। सैकड़ों आंदोलनकारी घायल हुए। खटीमा गोलीकांड के बाद राज्य आंदोलन पूरे प्रदेश में आग की तरह भड़क उठा। खटीमा गोलीकांड इतना विभत्स था कि देखने वालों की रुह कांप गई। उसकी विभत्सा को सुनकर आज भी लोग सिहर उठते हैं। हुआ कुछ यूं था कि जब जुलुस जा रहा था तब कोतवाल ने चिल्लाकर कहां की यह सब अलग राज्य मांग रहे हैं। इनको मार डाला। इसके बाद पुलिस ने आंदोलनकारियों पर फायरिंग शुरू कर दी। फायरिंग शुरू होते ही आंदोलनकारियों में जान बचाने के लिए भगदड़ मच गई। पुलिस इतने पर ही नहीं रुकी। पूरे इलाके में मुनादी कराई गई कि आंदोनलकारियों ने ट्रक में आग लगा दी है और पुलिस पर पथराव कर दिया, जिसमें पांच पुलिसकर्मियों की मौत हो गई। दो आंदोलनकारी घायल थे। उनको घसीटकर लेजाया गया। अगले दिन दो लोगों की मौत हो गई।

मसूरी गोलीकांड

इसके अलगे दिन खटीमा गोलकांड के विरोध में लोग मसूरी में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे। राज्य आंदोलनकारी प्रशासन से वार्ता के लिए आगे बढ़ रहे थे। पुलिस लोगों को आगे नहीं बढ़ने देना चाहती थी। देखते ही देखते पुलिस प्रदर्शनकारियों को धकियाने लगी। पुलिस ने अचानक से गोलीबारी शुरू की दी। इससे जनता भी हिंसक हो गई। पुलिस की गोलियों से बेलमती चैहान, हंसा धनाई, बलबीर सिंह, धनपत सिंह, मदन मोहन ममगांई और राय सिंह बंगारी शहीद हो गए। आंदोलनकारियों से भिड़ंत के दौरा पुलिस उपाधीक्षक उमाकांत त्रिपाठी की मौत हो गई। जबकि कई पुलिस कर्मी घायल हो गए थे।

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