सरकार पंचायतों को कमजोर कर रही है, सडकों से लेकर न्यायालय तक अधिकारों के लिए लड़ेंगे: पंचायत जनाधिकार मंच

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देहरादून: पंचायत जनाधिकार मंच उत्तराखंड की जिला नैनीताल इकाई की बैठक मंच के प्रदेश संयोजक जोत सिंह बिष्ट, मंच के मुख्य कार्यक्रम समन्वयक मथुरादत्त जोशी की उपस्थिति में और मंच के जिला संयोजक भोलादत्त भट्ट की अध्यक्षता में संपन्न हुई। बैठक में प्रमुख सतीश नैनवाल, जिला पंचायत अध्यक्ष सुमित्रा प्रसाद, आनंद आर्य, तारा सिंह, शेखर जोशी, कृपाल सिंह  मेहरा, राहुल छिम्वाल, किरण डालाकोटी, बीना जोशी, दीवान सिंह मटियाली, हेमवंती नंदन दुर्गापाल, जया कर्नाटक, मदन नौलिया, अर्जुन बिष्ट, किरण महरा, बलबीर रावत, देवेन्द्र राणा, त्रिभुवन जोशी, मदन कुइरा, राजेंद्र दुर्गापाल, नितेश बिष्ट, जीवन पलडिय, कृष्ण आर्य, कार्तिक कर्नाटक, रमेश जोशी, एन के कपिल, नीरज तिवारी, दिनेश कुंजवाल, सुरेश सिंह बिष्ट, ललित मोहन नेगी, भाष्कर भट्ट, भुवन प्रसाद, मनोज श्रीवास्तव, राजेंद्र रौतेला, भगवती बिष्ट आदि पंचायत के शुभचिंतक साथी उपस्थिति रहे।

बैठक  में व्यापक विचार विमर्श हुआ। बैठक में उपस्थित लोगों ने अपने विचार व्यक्त किये जिसके सार के रूप में यह बात निकल कर आई कि, 73वें संविधान संशोधन में पंचायतों को संवैधानिक दर्जा देने की स्वर्गीय पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी जी की मंशा को नरसिम्हा राव सरकार द्वारा 1993 में साकार किया गया, जिसमें समाज के कमजोर वर्गों, महिलाओं को प्रतिनिधित्व का मौका मिला। इसके अलावा 29 विषयों को पंचायतों के अधीन करने का प्रावधान इस में किया गया।

उत्तराखंड राज्य बनने के बाद जो पहला पंचायत का चुनाव हुआ उसमें जिन लोगों को सेवा का मौका मिला, और उस समय के पंचायत के प्रतिनिधियों ने पंचायतो की मजबूती के लिए लगातार संघर्ष किया, जिसके कुछ सकारात्मक परिणाम भी सामने आये। विधायिका के दबाव एवं हर पांच साल में पंचायतो के परिसीमन व आरक्षण के बदलने के कारन पंचायतो में पुराने और अनुभवी लोगों के लिए चुनाव में भागीदारी के मौके कम होते गए जिस कारण पंचायतो की लड़ाई शिथिल होती गई। आज सरकार ने पंचायतों में 29 विषय पर बात बंद कर दी है,  पंचायत प्रतिनिधियों की अनेक सुविधाओ पर रोक लगा दी गई है। पंचायत प्रतिनिधियों को प्रशिक्षण भी नहीं दिया जा रहा है। जिस वजह से आज सरकार, विधायिका, अधिकारी, कर्मचारी सब पंचायत के प्रतिनिधियों पर हावी हो रहे हैं, तथा पंचायतो  के संवैधानिक अधिकारों का हनन कर लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है।

उन्होंने कहा कि, उत्तराखंड बनने के 16 साल बाद बमुश्किल से पिछली कांग्रेस सरकार ने उत्तराखंड का पंचायत राज अधिनियम बनाकर लागू किया, जिसमें उत्तर प्रदेश पंचायत राज अधिनियम में मामूली संशोधन करने के बाद इसको उत्तराखंड में लागू किया गया। वर्तमान सरकार ने जून के महीने में आहूत विधानसभा सत्र में पंचायत राज अधिनियम 2016की 23 धाराओं में संशोधन किया जिसमे कई त्रुटियाँ होने के साथ धारा 8 में जोड़े गए 2 संशोधन न तो क़ानून सम्मत है और न ही व्यावहारिक।

इसके आलावा कहा कि, हम जनसख्या नियन्त्रण के पक्षधर हैं, पंचायत के प्रतिनिधि शिक्षित हों इसके भी पक्षधर हैं, लेकिन जो लोग इस क़ानून को बनाकर लागू करना चाहते है, क्या उनका शिक्षित होना जरूरी नहीं है, क्या जनसँख्या नियंत्रण का यह कानून उन पर लागु नहीं होना चाहिए।  इस सबके लिए केवल पंचायतें ही प्रयोगशाला क्यों, यह एक यक्ष प्रश्न है, जिसका जबाब ढूढ़ने की हम कोशिश कर रहे हैं। नियम और परंपरा है कि जब कोई क़ानून बनता है उसके बाद लागु होता है, लेकिन उत्तराखंड में जिस किसी के 3 बच्चे होंगे वह पंचायत चुनाव लड़ने के योग्य नहीं होगा, जो कि गलत है। इसलिए इन सब सवालो का सम्यक समाधान निकले, पंचायतो को उनके संवैधानिक अधिकार मिल सके पंचायते आर्थिक रूप से मजबूत हों, उत्तराखंड में “पंचायत जनाधिकार मंच” के बैनर तले इस लड़ाई को लड़ने का काम हमने शुरू किया है। हमारी कोशिश है की हम शांति पूर्वक आन्दोलन करे, नहीं तो सडको से लेकर न्यायालय तक अपने अधिकारों के लिए लड़ेंगे। अधिनियम में संशोधन के मध्यम से, शासनादेशो के मध्यम से या फिर नियमों में समय समय पर किये जा रहे परिवर्तन से सरकार व अधिकारी मिलकर पंचायत प्रतिनिधियों के अधिकारों पर अतिक्रमण करके पंचायतो को कमजोर कर रही है। पंचायते आर्थिक रूप से स्वावलंबी हों, अधिकार संपन्न हों, पंचायत प्रतिनिधियों को 73वे संविधान संशोधन में निहित अधिकार मिल सके, इस हेतु लम्बी लड़ाई लड़ने की कार्य योजना तैयार की जाय।

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